जड़ता मानसिक, प्राणिक, भौतिक, अवचेतन होती है । भौतिक जड़ता मानसिक जड़ता उत्पन्न कर सकती है । प्राणिक जड़ता लगभग हमेशा भौतिक को निष्प्राण, मलिन तथा सुस्त बना देती है । - श्रीअरविन्द

श्रीमाँ - संक्षिप्त परिचय

 

श्रीमाँ और उनका ध्येय:-

श्रीमाँ का जन्म 21 फरवरी 1878 को पेरिस में हुआ था। जब वे बहुत छोटी थीं तब भी उन्हें असाधारण स्वप्न, अंतर्दर्शन और आध्यात्मिक अनुभव हुआ करते थे। वे निरंतर यह महसूस करती थीं कि उन्हें कोई विशिष्ट कार्य संपन्न करना है और इस धरती पर एक विशेष ध्येय की पूर्ति करनी है। वे बड़ी कुशाग्रबुद्धि विद्यार्थिनी थीं और उन्होंने चित्रकला तथा संगीत में बड़ी निपुणता प्राप्त की थी। बीसवीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों में वे अल्जीरिया गयीं, जहाँ उन्होंने गुहयविद्या का गहन ज्ञान प्राप्त किया।

भगवान के प्रति आकर्षण का उनके जीवन में सदैव सर्वोपरि स्थान रहा और पेरिस में उनके इर्द-गिर्द तीव्र जिज्ञासुओं एवम् आदर्शवादियों का एक समूह केंद्रित होता गया और एक गहन आंतरिक आध्यात्मिक जीवन की अभीप्सा का क्रम आगे बढ़ने लगा। इसके साथ-साथ श्रीमाँ को समय-समय पर ऐसे अंतर्दर्शन होते रहे जिनमें उन्हें आध्यात्मिक विभूतियों का मार्गदर्शन मिलता रहा। इनमें से अनेक व्यक्तियों से कालांतर में उनकी भेंट भी हुई। इन विभूतियों में से विशेषतः एक को वे गीता के श्रीकृष्ण मानती थीं। जब 21 मार्च 1914 को वे पांडिचेरी पधारीं तो उन्होंने पहली ही दृष्टि में श्रीअरविन्द को अपने अंतर्दर्शन में प्रकट होने वाले श्रीकृष्ण के रूप में पहचाना और यह जाना कि उनका स्थान और उनका कार्य श्रीअरविन्द के साथ भारत में है। अगले ही दिन उन्होंने लिखा (‘प्रार्थना और ध्यान’), ‘यदि हजारों लोग अज्ञान के अन्धकार में डूबे हों, तो भी क्या ? उनकी उपस्थिति ही यह सिद्ध कर दिखाने को पर्याप्त है कि एक दिन ऐसा आएगा जब अन्धकार प्रकाश में बदल जायेगा और हे प्रभु ! तेरा साम्राज्य इस धरती पर स्थापित होगा।’

उन्होंने मासिक पत्रिका ‘आर्य’ के प्रकाशन में श्रीअरविन्द को अपना सहयोग दिया। लेकिन कुछ माह बाद ही प्रथम विश्व-युद्ध की परिस्थितियों के कारण उन्हें फ्रांस वापस जाना पड़ा। 1914 में वे जापान गयीं और वहां से 1920 में फिर पांडिचेरी आ गईं|

आरंभ से ही श्रीअरविंद की परिकल्पना को साकार करने का कार्य श्रीमाँ को सौंप दिया गया। एक ऐसे नए विश्व, नयी मानवता और नये समाज के निर्माण का कार्य उन्होंने आरम्भ किया जिसमें नयी चेतना अभिव्यक्त एवम् मूर्त हो। स्वभावतः यह एक ऐसा सामूहिक आदर्श था जिसको समन्वित मानवीय पूर्णता के रूप में साकार करने के लिये सामूहिक प्रयास की अपेक्षा थी।

इस लक्ष्य की प्राप्ति की दिशा में पहली मंजिल ‘आश्रम’ रहा। जिसकी स्थापना और निर्माण श्रीमाँ ने किया। दूसरी मंजिल ‘ओरोविल’ है जो अधिक बाह्य स्वरूप् है और जिसका उद्देश्य आत्मा और शरीर, पुरूष प्रकृति तथा स्वर्ग और धरती के बीच समरसता स्थापित करने वाले सामूहिक जीवन को संभव बनाने का प्रयास करना है।

11 नवम्बर, 1973 को श्रीमाँ ने अपना शरीर त्याग दिया परंतु उनकी चेतना और उनकी उपस्थिति पूर्ववत् ही अनुभव की जाती है और उनके द्वारा विनिर्मित सृष्टि उनके सतत मार्ग दर्शन एवम् प्रेरणा से विकास की ओर अग्रसर है।

श्रीमाँ अपने विषय में:-

"जन्म और प्रारम्भिक शिक्षा के नाते मैं फ्रांसीसी हूँ परन्तु प्रवृति और अभिरूचि के नाते मैं भारतीय हूँ। मेरी चेतना में इन दोनों में कोई विरोध नहीं है बल्कि, इसके विपरीत उनका प्रत्युत्म सामंजस्य है और वे एक दूसरे के पूरक हैं। मैं यह भी जानती हूँ कि मैं दोनों ही को एक समान रूप से अपनी सेवाएं अर्पित कर सकती हूँ क्योंकि मेरे जीवन का एकमात्र लक्ष्य है श्रीअरविंद की महान् शिक्षाओं को मूर्त रूप प्रदान करना और श्रीअरविंद अपनी वाणी द्वारा यह तथ्य उजागर करते हैं कि सभी राष्ट्र तत्वतः एक हैं और संगठित तथा समरतापूर्ण वैविध्य द्वारा वे धरती पर भागवत ऐक्य को ही अभिव्यक्त करने के लिए नियत हैं।"